इन दिनों

यहाँ सब वैसा नहीं है जैसा पहले हुआ करता था। सब बदल गया है। मैं भी बदल गया हूँ। अब वैसा कुछ भी महसूस नही होता जैसा पहले हुआ करता था। धीरे-धीरे सम्वेदना से दूर छिटकता गया हूँ। दिन यूँ ही निकल रहे हैं। ये इंतजार जैसा ही है। पर ये इंतजार किसी समय का है या किसी व्यक्ति का समझ नही पा रहा हूँ। ये एक भरी दोपहरी है। चेहरा अब पसीने से भरा रहता है। ये उमस अब मुझमें भी उतरती जा रही है। ये सब बातें जिस शांत भाव से लिख रहा हूँ ये उससे दुगनी आक्रामकता से मेरे अंदर पल रही हैं। 

मैं यहाँ साफ-साफ कुछ नही कहना चाहता। मैं एक भी सूत्र नही छोड़ना चाहता कि कोई उसे पकड़कर मुझतक पहुँच जाए। मैं ये भी नही चाहता कि मेरी इन अकेली बेचैनियों में कोई मेरे साथ हो। मुझे बस एकांत चाहिए जहाँ मैं अकेले जूझ सकूँ ख़ुद से। पढ़ाई से अब मोह छूट गया है। अकादमिक परिवेश से अजीब वितृष्णा हो गई है। ये एक ढाँचा है जो आपको अपनी तरह से अपने खाकों में फ़िट करने के लिए हमेशा दबाव बनाए रहता है। वो आपके सभी सपनों को रौंद डालता है। इसमें एक मज़ेदार बात ये भी है कि दुनिया-जहान में अपनी प्रगतिशीलता का डंका पीटने वाले महारथी भी अपनी संस्थाओं के स्वरूप में कोई परिवर्तन करने के इच्छुक नही लगते। बाक़ियों से उम्मीद ही क्या की जा सकती है।

इन्ही इंस्टीट्यूशन्स की तरह सम्बन्ध भी होते गए हैं। ऐसा कुछ रहा नही कि जो हमें बाँधे रख पाए। वो गर्माहट भी सब जाती रही। हम सभी आते हैं। मिलते हैं यंत्रवत। और जब हम सब एक दूसरे के पास नही होते तब हम एक दूसरे को याद भी नही करते। मैं इसे समय का तकाज़ा नही मानता, ये हमारी अनिच्छा है। संबंधों को बनाए रखने की अपनी तरफ से कोई कोशिश नही है। जिन सम्बन्धों में कुछ बचा ना हो उनका ना होना ही बेहतर है। होने ना होने की बीच की स्थिति सबसे ख़राब होती है।

ये मौसम मुझे बिल्कुल पसंद नही। बार-बार मन करता है कहीं ठंडी जगह चले जाओ। लेकिन मैं प्रवासी पक्षी नही हूँ। मैं यहीं मरूँगा। अब तो सोचता भी नही कहीं जाने की। मन टूट गया है। जाना वैसे भी संभव नही तो सोचने से कोई फायदा नही। ये मौसम बार-बार अग्निपरीक्षा की फील देता है। जितना भी चाहो आप वातावरण से अलग नही हो सकते। बसों की भीड़ से अब डर लगने लगा है। अगर ज़्यादा भीड़ हो तो तीन-चार बसें छोड़ दिया करता हूँ। कुछ भी हो झेलना तो पड़ता ही है।

अपने आप को समझने की जितनी कोशिश करता हूँ ख़ुद को उतना ही अबोध और पिछड़ा हुआ पाता हूँ। संभावनाएं और असमर्थताएँ तो बाद की बात है अपनी इच्छओं को समझना भी बस की बात नही लगती। सब कितना उलझा सा है। एक छोर पकड़ो तो दूसरा ग़ायब और सुलझाने की कोशिश करो तो इतना उलझ जाओ की निकलना दूभर हो जाए। हर छः महीने में जब ख़ुद को उलझा पाता हूँ तो देखता हूँ कि परीक्षाएं आ गईं। अब या तो पढ़ो या उलझे रहो। अंकों के लिए पढ़ना ही पड़ता है सो इन उलझनों को कुछ समय के लिए स्थगित करने के अलावा कोई चारा नही होता। फिर गए छः महीने। लगभग चार साल से यही हो रहा है। अब भी उलझा ही हूँ। लेकिन अब बेचैनी बढ़ गई है। कुछ सूझता नही। समय-समय पर ख़ुद को झिड़क देता हूँ। कभी तो बहुत से सवालों से बच भी जाता हूँ। ये बचना दीर्घकालीन नही होता कुछ ही समय में फिर वही सवाल आ खड़े होते हैं। अब इनसे बचना आसान नही होगा। अब और जूझना होगा।

इन दिनों तो सब गड़बड़ा ही गया है। समयबोध भी। कुछ समझ नही पाता कब दिन निकल गया। सब बस चल रहा है किसलिए पता नही। सब छूट रहा है समय की तरह। उद्देश्य भी छूट रहे हैं। सब गड्डमड्ड। बेकार की व्यस्तता हावी होती जा रही है। मैं अनुपस्थित होता जा रहा हूँ हर कहीं से। अपने आपमें से भी। यहाँ पता नही क्यूँ हूँ। कहना बहुत कुछ है लेकिन कुछ है जो रोक रहा है। शायद मैं ख़ुद ही रोक रहा हूँ स्वयं को। या आलस्य, या डर। ये ऐसा भाव है जिसे लिखने की जद्दोजहद में कुछ भी नही लिखा जाता। ये बस है। अनकहा।

देवेश,  24 अप्रैल 2018

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