मैं नही जाऊँगा!

मैं उन्हें कहूँगा समय ही नही मिलता, अभी मन नही या फिर परीक्षाओं की तैयारी कर रहा हूँ। तब दरअसल मेरी नज़रे ज़मीन में गहरी गड़ी होंगी और वहाँ आती-जाती गाड़ियों के हॉर्न ज़ोरों से मेरे अंदर बज रहे होंगे। बातों- बातों में कहीं घूम आने की बात आएगी और मैं उन्हें कह दूंगा 'अच्छा है कि आप घूमने गए हैं'। मेरा बस मन ही उड़ सकता है। मैं कहीं जाऊँगा नही। मैं बस यहीं रहूँगा। अब यहीं रहना है। अब तो अपनी दुनिया को फिर से बनाना होगा। अब की तरह। हो सकता है रास्तों में भी बदलाव हो। पता नही बस कौन सी होगी, कौन सा रुट होग। गंतव्य क्या होगा। शुरू-शुरू में आदत नही जाएगी, मैं वहीँ स्टैंड पर खड़ा हो जाऊंगा अपने दायीं और मुँह किये। फिर याद आने पर रास्ता बदल लूंगा। मेरी उस नई दुनिया में मेरी पसंदीदा जगह कौन सी होगी? क्या तब भी पलाश मुझे उतना ही भाएगा? कौन अनजान लोग मेरे अपने हो जाएंगे? इन सब बातों को सोचते हुए एक शून्य नज़र आता है। अनगिनत गाड़ियां उस शून्य में घूमने लगती है ज़रा देर बाद सब खो जाता है। उस गहरे शून्य में से नदी, पहाड़, पक्षी, बर्फ, पोखर, मिट्टी, बादल, झरने, सड़कें सब एक-एक कर निकलते हैं और मेरी दुनिया में समा जाते है। मैं उन पहाड़ों को अपनी बंद आँखों से देख पाता हूँ। वो मेरे एकदम नज़दीक है। देवदार के पेड़ मेरी हथेली को छू रहे है मेरी साँसें धुंध से अटी हवा से जम रही है। अख़रोट का वृक्ष उस बाग़ में मेरा इंतज़ार कर रहा होगा। मुझे अभी जाना है। मैं जाऊं? नही! अभी नही जाना। मुझे अभी यहीं रहना है। अभी बहुत से काम बाक़ी हैं। मेरे बिना उनका रहना संभव नही। मेरा अभी जाना असंभव है। अभी नही जाऊँगा। सुनो तुम मेरी टिकट मत कराना, मैं नही जाऊँगा!

(देवेश 18 मई 2016)

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