खालीपन और बेचैनी

इस बीच एक लंबा अंतराल आ गया है। कुछ लिखते नही बनता। कितनी ही कोशिशें नाकाम हो चुकी हैं। कुछ महसूस ही नही होता। लगता है पत्थर हो गया हूँ। कुछ चुभता ही नही। लिखने के लिए पढ़ना ज़रूरी है, वो भी नही होता। बस अपने में ही रहते-रहते एक अजब सी ऊब हो गई है। इस ऊब का क्या इलाज है नही जानता। बस लगता है ये समय बीतता रहे धीरे-धीरे। अब वैसे बैठा भी नही जाता की बैठे-बैठे ही दिन निकाल दें। शाम होते ही कहीं दूर पैदल चलते चले जाने का मन होता है। इसके पीछे का कारण शायद बहुत कुछ पीछे छूट जाने का सदमा-सा भी हो सकता है और आगे की अनिश्चितता भी। पर एक बात जो समझ नही पा रहा हूँ वो ये की इससे निजात कैसे मिले। एक बेचैनी सी हैं। इस माहौल में मन में कुछ गुना भी नही जा रहा। किसी के लंबे लेख को देखकर हैरत सी होती है की इतना कोई कैसे लिख सकता है। ये सब लिखते हुए भी एक अजीब सा खालीपन पसरा हुआ है इसलिए न किसी को किसी से जोड़ पा रहा हूँ ना ही बड़े-बड़े शब्दों को ही लिख पा रहा हूँ। इस सब से निकलने की ज़िद भी है पर इसे छोड़ना भी गवारा नही। अब बताएं क्या किया जा सकता है? मैं कहता तो हूँ पर आवाज़ें टकराकर लौटती नही हैं लगता है जैसे निरा शून्य है। अब से मैं अपने सामने अपने आप को ही देखा करूँगा और इंतज़ार करूँगा खुद के बोलने का। शायद कोई जवाब इस ऊब और बेचैनी का मुझे मिल जाए।
देवेश 30 मई 2016

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