ढूंढना

मैं उन किताबों में हूँ ही नही जिनमे तुम मुझे ढूंढ रहे हो। उन किताबों में कुछ ऐसा है ही नही जिसे पढ़ा जाए। सब कुछ तो किसी और का है। वो कथा भी हमारी नही। हमारी कथा कोई लिखेगा भी नही। मैं उस सफ़ेद कमरे में भी नही हूँ जहां मैं हफ्ते के सोलह घंटे गुज़ारा करता था। अब वहां जाने का मन भी नही होता। खुद को भूलकर देखो कभी। वो सोलह घंटे तुम खुद को ढूंढ भी सकते थे..  शायद तुम खुद को खोज लेते, तभी तो खुद को पहचान पाओगे। यहाँ तो समझ ही नही आ रहा कि कहाँ से जड़ें शुरू हैं और कहाँ से पत्तियाँ खत्म। ये समय बड़ा मुश्किल है। कोई बात नही, अभी ठहर जाओ थोड़ा। सोच लो तुम कहाँ हो। जगह को एक बार समझ लो फिर ढूंढो मुझे आराम से। समय वैसे कम ही है, संभावनाओं का कुछ पता नही। पर तुम पर यक़ीन है कि तुम ढूंढ लोगे मुझे। शुरुआत और अंत सब हमारे हाथ में ही है। जन्म और मृत्यु कभी शुरुआत और अंत नही हो सकते। मृत्यु के बाद भी हम खुद को ढूंढ सकते हैं, दूसरों में, उनकी बातों और यादों में। जीते जी मुझको ढूंढना अजीब सा है। खैर.. तुम ढूंढना मुझे कैंपस के दायरों के बाहर, मैं वहां हो सकता हूँ।
देवेश, 4 नवम्बर  2016

टिप्पणियाँ